शिवगुरु और माता सुभद्रा (विशिष्टा) का यह तेजस्वी पुत्र सात वर्ष की आयु में ही समस्त वेद वेदांग में निपुण हो गया। बाद में महर्षि पराशर, व्यास, शुकदेव की परंपरा में हुए गोविंदपाद से शंकर ने ब्रह्मतत्त्व की शिक्षा प्राप्त की। तत्वमसि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि आदि सूत्र उन्हें गुरु गोविंदपाद ने ही दिए। उन्हीं से हठयोग, ज्ञानयोग और राजयोग की शिक्षा प्राप्त की। सृष्टि कल्याण और वेद सम्मत ज्ञान के प्रसार हेतु गुरु आज्ञा पर सर्वप्रथम काशी और भारतवर्ष का भ्रमण किया। गुरु के निर्देश पर ही विभिन्न भाष्य, सूत्र, प्रकरण और स्त्रोतों की रचना की। चोल प्रदेश के सनंदन शंकर के प्रथम शिष्य बने उन्हें विष्णु अवतार भी बताया जाता है।
शंकर के साथ विशिष्ट चमत्कारों का भी उल्लेख किया जाता है। माता विशिष्टा के कष्ट निवारणार्थ पूर्णा नदी को अपने तपबल से ग्राम के समीप ही बहाने का प्रसंग हो या माता द्वारा सन्यास की अनुमति नहीं देने पर योगबल से नदी में मगर द्वारा स्वयं को ग्रसे जाने का प्रसंग हो। गुरु आश्रम में अतिवृष्टि होने और ध्यानमग्न गुरु को जलमग्न होने से बचाने के लिये माँ नर्मदा को मंत्र प्रभाव से अगस्त्य मुनि की भांति घड़े में बांधना हो या अपने भूज्ञान से ऋषिकेश की प्रतिमा को गंगा से निकलवाकर स्थापित करवाना हो। ये सब प्रसंग उनके योग और तपबल को तो दर्शाते हैं पर शंकर इन छोटे मोटे चमत्कारों से कहीं आगे थे। उन्हें चमत्कार नहीं राष्ट्र की चेतना और चरित्र जागृत करना था। यह महत कार्य उन्होंने तमाम धर्माडम्बरों के भ्रम को वेदांत द्वारा दूर कर किया।
वेदांत प्रचार के दौरान वाराणसी में एक बार शंकर को रास्ते में दीन मलीन और श्वानों से घिरा हुआ एक व्यक्ति दिखाई दिया तो अनायास ही शंकर में उसे वहाँ से दूर हटने को कहा। तब उसने शंकर से पूछा तुम किसे दुत्कार रहे हो इस मलिन शरीर को या इसमें निहित ब्रह्म को। यह घड़ी थी जब समस्त विद्याओं और वेदादि में पारंगत शंकर ने व्यावहारिक समझ को भी आत्मार्पित किया। यहीं से उनका दार्शनिक अद्वैत व्यावहारिक अभेद में प्रस्फुटित हुआ। शंकर ने गुरु गोविंदपाद के पश्चात इसी चांडाल की गुरु रूप में स्तुति आरंभ की। यही स्तुति कालांतर में मनीषा पंचक नाम से प्रसिद्ध हुई। वह चांडाल वस्तुतः स्वयं काशी विश्वनाथ ही थे। यों उन्होंने स्वयं ही स्वयं को दिशा दी। इसी क्षण में तमाम ज्ञान, सिद्धांत और दर्शन ने यथार्थ को अंगीकार किया। इसी क्षण यह भी स्थापित हो गया कि महज कोरा ज्ञान अपूर्ण है। यही कबीर की कागद की लेखी और आँखन देखी का मिलन पर्व बना। यही शंकर के साक्षात का मर्म था। ज्ञान, भाव और कर्म में संतुलन तथा समन्वय के सूत्र का प्रस्फुटन यहीं से हुआ। इसी क्षण शंकर सबको स्वीकार कर सबके हुए। पतिततम को स्वीकार कर वे पवित्रतम हो गए। वस्तुतः यही शंकर के शंकर बनने का क्षण था। आज भारत को इसी शंकर को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
मालाबार से केदारनाथ की यात्रा उनकी जीवन यात्रा के आरंभ और अंत के प्रतीक मात्र नहीं है। 32 वर्ष की अल्पायु में भारतवर्ष के नख से शिख तक पहुंचने और उसके सांगोपांग से आत्मसात होने का प्रतीकात्मक चित्रण भी है। धर्म, ज्ञान और मर्यादा की स्थापना के क्रम में दक्षिण शृंगेरी में शारदा पीठ, पूर्व पुरी में गोवर्द्धन पीठ, पश्चिम द्वारका में कालिका पीठ और उत्तर बद्रीनाथ में ज्योति पीठ महज चार पीठें नहीं थीं। ये भारतीय संस्कृति के चार केंद्र हैं। जैसे वेदांत को चार वेद उठाये हुए हैं वैसे ही भारत इन चतुष्पादों पर टिका है। ये सब मिलकर माँ भारती का वृहत बिम्ब गढ़ते हैं। यह संपूर्णता मजह भौगोलिक नहीं वरन जीवन शैली और संतुलित निष्पक्ष जीवन के सूत्रों की भी संपूर्णता है। यह भारतीय व्यक्तित्व के जीवन दर्शन के चार प्रकाश स्तंभ हैं। जिसका केंद्र स्वयं उनकी साधना स्थली काँची कामकोटि पीठ रहा। मानो अद्वैत का प्रतिपादन वे भारत की अद्वैतता उसकी एकता का प्रतिबिंबन इस ढंग से कर प्रतिपादित करना चाहते हों। इसी क्रम में उन्होंने पाँच प्रसिद्ध लिंगो की भी स्थापना की। शृंगेरी में भोग लिंग, नेपाल में वीर लिंग, बद्रीनारायण में मुक्ति लिंग, चिदंबरम में मोक्ष लिंग और सबसे महत्वपूर्ण कांची में योग लिंग। वह पहले ऋषि थे जिन्होंने आधुनिक अर्थों में भारतीय एकता का सूत्रपात किया। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और भौगोलिक सभी स्तरों पर। पीठ और लिंगों की स्थापना का मर्म भारत की आध्यात्मिक और लौकिक उन्नति तथा उसकी एकता के प्रयोजन से था। आज भारत इसी अद्वैत को पालन करने के कारण ही हर मोर्चे पर सफल है, सद्भाव का वैश्विक केंद्र बना हुआ है। अद्वैत ही किसी भी राष्ट्र, प्राणी या इकाई की सफलता का सूत्र है। प्रत्येक जीवात्मा में बिना किसी भेदभाव के एक ही ब्रह्म की सत्ता की स्थापना यह स्पष्ट करती है कि उनकी दृष्टि में किसी प्रकार का भेद नहीं था। वे अभेद के ज्ञात ज्ञान भंडार के सबसे व्यापक, विशाल और स्वीकृत प्रस्तोता, प्रणेता, प्रवर्तक रहे। न उनके पूर्व न ही उनके पश्चात अभेद का ऐसा शंखनाद कोई कर सका। भारतीय संविधान के अभेद परक तत्वों का मूल स्रोत वेदांत और शंकर का अद्वैत ही है।
भारत भर के तीर्थों का भ्रमण कर भ्रामक व भेदपरक मान्यताओं का खंडन करते हुए आगे बढ़ जाने का महनीय यज्ञ इस उद्भट के सिवा कौन कर सकता था। इस प्रकार अपने शिष्यों की मंडली को साथ लेकर की गई उनकी यात्रा दिग्विजय के नाम से चर्चित हुई। तत्समय राष्ट्र में विभिन्न भ्रामक मत मतांतर व्याप्त थे। कर्नाटक से लेकर उज्जैन तक कापालिक मत का प्रचार था। शंकर द्वारा कर्नाटक में कापालिक क्रचक का दंभ तोड़ना हो या उज्जैन में अपने प्रवास के दौरान कापालिक उन्मत्त भैरव को पराजित करना हो। उनका शास्त्रार्थ आमजन कल्याणार्थ ही था। उन्होंने भारतवर्ष के सभी दिशाओं क्षेत्रों और नगरों में पैदल भ्रमण कर चार्वाक, सांख्य, नाना मतावलंबियों द्वारा फैलाये जा रहे रहस्यों, गुह्यताओं का, भ्रम का भंजन कर वेदांत और अद्वैत का मार्ग प्रशस्त किया। शैव, वैष्णव, तांत्रिक, कापालिक, बौद्ध, जैन, श्रमण संस्कृतियों का वेदांत सम्मत भारतीयकरण किया। भारतीय मनीषा के लिए आध्यात्मिक मार्ग के समस्त कंटक भ्रम दूर किये।
यह शंकर ही थे जिन पर लिखे ग्रंथों की एक अलग ही श्रेणी ‘दिग्विजय’ नाम से ख्यात हुई। ये तमाम रचनाएं शंकर दिग्विजय या शंकर विजय की संज्ञा से प्रसिद्ध हुई। उनकी रचनाओं की संख्या 200 से अधिक बताई जाती है जिसमें भाष्य, सूत्र और स्त्रोत शामिल हैं। इसमें प्रस्थान त्रयी (उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र) प्रमुख है। वैदिक धर्म दर्शन द्वारा आचरण और व्यवहार की शुद्धि की स्थापना उन्होंने भारतवर्ष में की। उन्होंने यह स्थापित किया कि राष्ट्र को जाने बिना उसकी उन्नति के प्रयास और उसे दिशा देने के कोरे किताबी सूत्र व्यर्थ हैं। इसीलिए आचार्य शंकर ने अल्पायु में ही भारत भर का सर्वांग भ्रमण किया, उसकी संस्कृति को समझ राष्ट्र, संस्कृति और सभ्यता के दिशादर्शन के कई स्थाई सूत्रों का प्रतिपादन किया। यह विश्व कल्याण के सनातन सूत्र हैं।
राष्ट्र के विकास के मूल सूत्रों को जीवंत रखती इस प्रतिभा का स्मरण आज हम सब राष्ट्रवासियों का पुनीत कर्तव्य है। हम किस वर्ग, जाति, नस्ल, पंथ या कौम के हैं यह सब अप्रासंगिक है। हमें राष्ट्रहित में एकमत से आचार्य शंकर के भाव को उनके संदेश को आज और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने के कर्तव्य को तत्परता से निर्वहित करना है। उसे व्यवहार में लाना है। उनका ‘अद्वैत’ व्यक्ति कल्याण के साथ साथ राष्ट्र कल्याण का महत्वपूर्ण सूत्र है। हमारा संविधान भी इसी सूत्र का अनुसरण कर विश्व के महानतम संविधानों में शुमार है। संविधान सभा का प्रत्येक सदस्य या तो शंकर से या उनके अनुयायियों दयानंद, अरविंद या विवेकानंद से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रेरित था। शंकर की यह समेकित और अभेद दृष्टि ही संविधान की व्यापक स्वीकृति और उसकी जीवंतता का रहस्य है।