जम्मू-कश्मीर चुनाव : विकास के नए द्वार खोलने का माध्यम

जम्मू एवं कश्मीर में तीन चरणों में विधानसभा चुनाव कराने की चुनाव आयोग की घोषणा निश्चित ही लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती देने के साथ क्षेत्र के लिए विकास के नए दौर के द्वार खोलने का माध्यम बनेगी। जम्मू-कश्मीर की 90 सीटों पर विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, जिसमें 43 जम्मू और 47 कश्मीर की सीटें हैं, इन चुनावों में जम्मू-कश्मीर के लोग सक्रिय रूप से भाग लेकर और बड़ी संख्या में मतदान कर ऐसी सरकार बनाये जो शांति और विकास के नये द्वार उद्घाटित करते हुए युवाओं के लिए उज्ज्वल भविष्य सुनिश्चित करे एवं आतंकमुक्ति का एक नया अध्याय रचे। आज सबकी आंखें एवं कान चुनावी सरगर्मियों एवं भविष्य के गर्भ में ईवीएम से निकलने वाले जनादेश पर लगी हैं। ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होने के साथ प्रांत में नई उम्मीदों के नये दौर का आगाज है। इस बार के चुनाव अब तक हुए चुनावों से अलग है और खास है।

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के पहले चरण के लिए नामाकंन भरने की आज आखिरी तारीख है, लेकिन तमाम बड़ी पार्टियों के बीच असमंजस और अनिश्चितता जैसे खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हालांकि कुछ हद तक इस तरह की अनिश्चितता हर चुनाव में होती है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में हालात सामान्य से ज्यादा जटिल हैं और इस असमंजस के पीछे उसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। विपक्षी खेमे में माने जाने वाले राज्य के तीनों प्रमुख दलों में सहयोग और संघर्ष दोनों का दिलचस्प घालमेल दिख रहा है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच सभी 90 सीटों पर गठबंधन की घोषणा कर दी गई है, लेकिन आलम यह है कि पहले चरण की 24 सीटों का भी बंटवारा मुश्किल साबित हो रहा

पीडीपी इस गठबंधन से बाहर है। फिर भी मुद्दों की एकरूपता के चलते न सिर्फ उमर अब्दुल्ला उससे अपनी पार्टी के खिलाफ प्रत्याशी न खड़ा करने को कह रहे हैं बल्कि खुद महबूबा भी कह चुकी हैं कि अगर उनके अजेंडे को स्वीकार किया गया तो गठबंधन का समर्थन करेंगी। भाजपा किसी बड़े दल के साथ गठबंधन में नहीं है, इसलिए वहां इस तरह की गफलत नहीं है, लेकिन निर्णय लेना और उसे लागू करना वहां भी जटिल बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर में दस वर्ष बाद होने जा रहे विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा को अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर उसे जिस तरह वापस लेना पड़ा, उससे उसकी छिछालेदार तो हुई ही है, अनुशासित दल की उसकी छवि को धक्का भी लगा। स्थिति यह है कि पार्टी ने सोमवार को 44 प्रत्याशियों की पहली सूची जारी करने के थोड़ी ही देर बाद व्यापक विरोध के कारण उसे वापस ले लिया। इसके बाद जो सूची जारी की गई, उसमें 15 ही प्रत्याशियों के नाम थे। यह आलम तब है, जब पहली सूची भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में मंजूर की गई थी।


यदि भाजपा औरों से अलग तथा अनुशासित दल की अपनी छवि के प्रति सचेत है तो उसे प्रत्याशी चयन की अपनी प्रक्रिया को लोकतांत्रिक आकार देना ही होगा। पहले जारी सूची का विरोध जिन कारणों से हुआ, उनमें एक तो दूसरे दलों से आए नेताओं को प्रत्याशी बनाना रहा और दूसरे दोनों पूर्व उप मुख्यमंत्रियों का नाम न होना। लगता है भाजपा को अभी भी लोकसभा चुनावों में हुई गलतियों का आभास नहीं है। लोकसभा चुनाव में उसे दूसरे दलों के नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने का किस तरह नुकसान उठाना पड़ा था। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के लिए जारी प्रत्याशियों की सूची का विरोध यह भी बताता है कि भाजपा प्रत्याशी चयन की कोई नीर-क्षीर, पारदर्शी और ऐसी प्रक्रिया का निर्माण नहीं कर सकी है, जिससे असंतोष, विरोध और भितरघात का सामना न करना पड़े। वैसे यह समस्या केवल भाजपा की ही नहीं, सभी दलों की है। कम से कम यह तो होना ही चाहिए कि राजनीतिक दल प्रत्याशियों के चयन में अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की राय को महत्व दें।

यह कठिन कार्य नहीं, लेकिन हमारे राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र विकसित करने से बच रहे हैं।
चुनाव अभियान प्रारम्भ हो रहा है। प्रत्याशियों के नामांकन हो रहे हैं। सब राजनैतिक दल अपने-अपने ‘घोषणा-पत्र’ को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बताकर सब समस्याएं मिटा देने तथा सब रोगों की दवा बन जाने की नैतिकता की बातें करते हुए व्यवहार में अनैतिकता को छिपायेंगे। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल फेवीकॉल लगाकर एक होंगे। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षण व आवश्यकता बतायेंगे। इस बार दलों में जितना अन्दर-बाहर होता हुआ दिख रहा है, उससे स्पष्ट है कि चुनाव परिणामों के बाद भी एक बड़ा दौर असमंजस का चलेगा। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“ इसलिये प्रांत के लोगों को मतदान करते हुए विवेक का परिचय देना होगा।


इन चुनावों की जटिलता का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि एक दशक पहले यानी 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के समय अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जे से लैस जम्मू-कश्मीर अब विशेष राज्य के दर्जे से भी वंचित है। उस चुनाव में दो सबसे बड़ी और मिलकर सरकार बनाने वाली पार्टियां पीडीपी और भाजपा एक-दूसरे की धुर विरोधी हो चुकी हैं। राज्य में अब भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हिन्दू बहुल सीटों और कश्मीरी पंडितों के वोट बैंक को अपने खाते में डालने के इरादे से मैदान में उतर रही है और ऐसे में कांग्रेस की हालत खराब होना तय माना जा रहा है। भले ही सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा के साथ गठबंधन करने से इंकार कर दिया है, लेकिन भाजपा की मजबूत स्थिति को देखते हुए भविष्य में क्षेत्रीय दलों के भाजपा के साथ बहती हवा में जाने की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर एक राज्य के रूप में शुरू से विशिष्ट रहा है, इस दृष्टि से वहां होने वाले चुनाव भी विशेष एवं अन्य राज्यों से भिन्न है। बड़ी बात यह है कि पार्टियां एक-दूसरे के बारे में चाहे जो भी कहें, ये सभी भारतीय संविधान के तहत लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव में हिस्सेदारी कर रही हैं और जनादेश को भी स्वीकार करेंगी। निश्चित ही इन चुनाव परिणामों से उम्मीद जगी है कि यहां से जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक विकास और शांति-समृद्धि-स्थिरता का नया दौर शुरू होगा। ऐसा होना ही इन चुनावों की सार्थकता है।


जम्मू एवं कश्मीर के चुनाव अनेक दृष्टियों से न केवल राजनीतिक दशा-दिशा स्पष्ट करेंगे बल्कि बल्कि राज्य के उद्योग, पर्यटन, रोजगार, व्यापार, रक्षा, शांति आदि नीतियों तथा राज्य की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। वैसे तो हर चुनाव में वर्ग, जाति, सम्प्रदाय का आधार रहता है, पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म, सम्प्रदाय व क्षेत्रीयता व्यापक रूप से उभर कर सामने आयेगी। मतदाता जहां ज्यादा जागरूक दिखाई दे रहा है, वहीं राजनीतिज्ञ भी ज्यादा समझदार एवं चतुर बने हुए दिख रहे हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरें रखे हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ है। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा राज्य की एक करोड लाख पच्चीस लाख जनता को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विकास एवं शांति की दिशा में। सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है।

चुनाव घोषित हो जाने से तथा प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने से जो क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हो रही हैं उसने ही सबके दिमागों में सोच की एक तेजी ला दी है। प्रत्याशियों के चयन व मतदाताओं को रिझाने के कार्य में तेजी आती जायेगी। परम आवश्यक है कि सर्वप्रथम राज्य का वातावरण चुनावों के अनुकूल बने। राज्य ने साम्प्रदायिकता, आतंकवाद तथा अस्थिरता के जंगल में एक लम्बा सफर तय किया है। उसकी मानसिकता घायल है तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। पुराने चेहरों पर उसका विश्वास नहीं रहा। अब प्रत्याशियों का चयन कुछ उसूलों के आधार पर होना चाहिए न कि जाति और जीतने की निश्चितता के आधार पर। मतदाता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ की परिपक्वता दिखाई दे रही है। ये चुनाव ऐसे मौके पर हो रहे हैं जब राज्य लम्बे दौर की विभिन्न चुनौतियों से जूझने के बाद शांति एवं विकास की राह पर अग्रसर है।

लेखक - ललित गर्ग

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