महज 7 महीने पहले बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में 9वीं बार शपथ लेने वाले नीतीश कुमार, राजधानी पटना में 18 विपक्षी दलों के साथ बीजेपी के खिलाफ पहली बैठक की मेजबानी कर रहे थे. आगामी लोकसभा चुनावों से पूर्व यह पहला मौका था जब बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी के लिए एक संगठित विपक्ष की चुनौती तैयार हो रही थी. लेकिन अब सब कुछ बदल गया है. नीतीश एक बार फिर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं और राजग का हिस्सा बनते ही अपने हाल ही में विरोधी हुए पुराने साथियों से तीखी प्रतिक्रिया का सामना कर रहे हैं. कभी नीतीश के करीबी रहे आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने तो यहां तक कह दिया कि नीतीश को शर्म आनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने ख़ुद विपक्ष के लोकतंत्र बचाने के प्रस्ताव पर दस्तख़त किए थे. उन्होंने धोखा दिया है. नीतीश के इस फैसले को धोखे के रूप में लेने वाले राजनेताओं से लेकर राजनीति की समझ रखने वाले आम इंसान तक, जो बीजेपी या एनडीए के विरोध में रहे हैं, सोशल मीडिया से चाय की टापरी तक नीतीश को पलटीमार पुकार रहे हैं. पलटीमार का पर्याय बताये जाने के पीछे एक विशेष कारण उनका वह बयान भी है जब अभी कुछ महीने पहले ही नीतीश ने बीजेपी के साथ जाने से बेहतर मर जाना क़ुबूल किया था. लेकिन महज 45 विधायकों के सहारे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार की रणनीति को समझना, उन्हें पलटीमार बता देने जितना आसान नहीं है.
नीतीश के जिस फैसले पर इंडिया एलायंस की नींव खोखली हो गई, बिहार की सरकार गिर गई, बावजूद इसके तेजस्वी यादव ने नीतीश के खिलाफ नरमी बनाई रखी. दूसरी तरफ राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा लेकर बिहार में घुसे लेकिन नीतीश पर एक शब्द नहीं बोले. इसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण कारण है और वह यह कि जो नीतीश के कभी भी किसी भी खेमे में शामिल होने के चरित्र को समझते हैं, वह उनके खिलाफ आग उगलने से बेहतर चुप रहना समझते हैं, क्योंकि कल जरुरत पड़ने पर नीतीश फिर एनडीए का साथ छोड़ विपक्षी पाले में जा सकते हैं. क्योंकि वह सिर्फ अपनी परवाह करते हैं न कि इस बात कि कौन क्या सोचेगा, उनकी राजनीतिक नैतिकता पर प्रश्न खड़े करेगा या नैतिक और मौलिक पैमाने पर उनकों किस तरह से आँका जायेगा. उन्हें इन बातों की फ़िक्र नहीं है और इसलिए उनसे राजनीति के लोगों को सीखने की जरुरत भी है कि कैसे विरोधी सुरों को अपने सुर में मिलाया जाता है. जो अमित शाह मंचों से कहते सुने गए कि नीतीश के लिए अब एनडीए के दरवाजे बंद हो चुके हैं, और जो सम्राट चौधरी नीतीश को सत्ता से बेदखल करने तक पगड़ी न खोलने की बात कहते थे, आज नीतीश के सर पर पगड़ी सजा रहे हैं. यूं देखें तो नीतीश ने उन लोगों को ही पलटूमार साबित कर दिया है, जो अब कभी उनके साथ न रहने की कसमें खा चुके थे. हालाँकि नीतीश के एनडीए में जाने के फैसले के पीछे आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का निजी लाभ भी शामिल है. कैसे?
जाहिर है पिछले 10 सालों में चार बार दल बदलने के फैसले के पीछे हर बार नीतीश का फायदा ही छिपा होता है. चूंकि अगले दो महीनों में देश के आम चुनाव होने हैं, और मौजूदा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, खासकर राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद पीएम मोदी की जो इंटरनेशनल छवि बनी है, नीतीश बहुत अच्छे से समझते हैं कि उस छवि के आगे फिलहाल किसी और छवि का कारगर साबित होना काफी मुश्किल है. वह इंडिया गठबंधन की कमजोरियों को भी अच्छे से समझ गए हैं और आश्वस्त हैं कि इस गठबंधन से उनका कोई लाभ नहीं होने वाला हैं. वहीं उनके फैसले को इस नजर से भी देखा जा सकता है कि पिछले दो लोकसभा चुनावों में उनको एनडीए के साथ और खिलाफ रहने के परिणामों में भी भारी अंतर देखना पड़ा था. यानी 2014 के लोकसभा में जेडीयू ने जब अकेले चुनाव लड़ा था तो महज दो सीटें ही हाथ लगी थीं, वहीं 2019 के चुनावों में जब वह बीजेपी के साथ आये तो 16 सीटें जीतने में सफल हुए थे. इशारा साफ़ है, नीतीश अब एक बार फिर लोकसभा चुनावों से पहले जदयू के लाभ को ध्यान में रखते हुए बीजेपी खेमें में शामिल हो गए हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं कि लोकसभा चुनावों के बाद राजनीतिक लाभ लेकर नीतीश एक बार फिर पाला बदल लें. फिलहाल नीतीश बीजेपी और एनडीए गठबंधन के साथ हैं, और उन आशंकाओं से भी बाहर आ गए हैं जो आरजेडी के साथ रहते हुए उनकी पार्टी में फूट की ओर इशारा कर रही थी. और अंत में हम यह कह सकते हैं कि नीतीश कुमार ही भारतीय राजनीति के अगले चाणक्य हैं, उनका सानी कोई नहीं!