कृषि समस्याओं से लड़ने के लिए समाधान जरूरी
भारत, विश्व की सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। आज़ादी के 70 वर्षों के बाद लगातार किसानों के लिए बनती नीतियों के बावज़ूद किसान आज आत्महत्या करने को मजबूर है, किसानों का आंदोलन चेन्नई से दिल्ली तक एक समस्या के रूप में राष्ट्रीय विमर्श का कारण बना हुआ है। देश की आज़ादी के पहले और बाद तक लगातार किसान आंदोलनों की एक श्रृंखला बनी बारदोली, तेभागा और तेलंगाना आंदोलन जैसे कुछ नाम शामिल है। यहां तक कि यह आंदोलन उग्र और हिंसात्मक भी रहे, जो सबके मूल में शामिल था। जमीदारी प्रथा का शोषणकारी स्वरुप बेगारी, खेतिहर मजदूर की दयनीय स्थति है। आज़ादी के बाद लगातर किसी न किसी रूप में इसकी अभिव्यक्ति होती रही, जमीदारी प्रथा कमजोर जरूर हुआ, पर शोषणकारी स्वरुप विद्यमान रहा। असमानता के रूप में बड़े किसान और छोटे किसान का वर्ग भेद 67% से ज्यादा किसान आज सीमांत और लघु किसान है। 1990 के बाद की नीतियों ने जब भूमि सुधार का प्रश्न मूल मुद्दे से हट दिया और भूमि अधिग्रहण जैसे नीतियों ने इसका स्थान ले लिया। जिस दर से खेतिहर मजदूरो कि संख्या बढ़ी है, उस दर से उन्हें किसी और उत्पादक कार्यों में लगाया नहीं गया। इसका परिणाम गरीबी और शोषण रहा। नीति नियंताओं की मूल दिक्कत यह रही कि भारतीय परिपेक्ष्य में समस्या का समाधान न देखकर, ब्रिटिश चश्मे से इसे देखा गया। ब्रिटेन और भारत की जनसंख्या उपलब्ध भूमि और किसान की आर्थिक स्थति को देखिये। तुलनात्मक रूप से इसका क्या मेल ? भारी औद्योगिकीकरण ब्रिटेन की जनसंख्या को आय के उच्च स्तर तक पहुंचाने के लिए एक सही नीति थी जिसने वहां के किसानों को भी अप्रत्यक्ष रूप से इसका फायदा दिया, पर भारत आज़ादी के बाद ही विशाल गरीब जनसंख्या और बिखर चुके छोटे और लघु उद्योगों के साथ आज़ाद हुआ था। इसे पहले जमीदारी और सामंती व्यवस्था के पूर्ण अंत की दरकार थी, लघु उद्योगिक ढांचे को पुनः निर्मित करने की दरकार थी ताकि किसानी का एक विकल्प लोगों को तुरंत उपलब्ध हो, फिर जमीदारी के अंत से प्राप्त भूमि को वितरण के साथ-साथ किसानी के उचित तरीके जो पर्यावर्णिक हो जिसमें “रैन वाटर हार्वेस्टिंग” के तरीके शामिल हो । कावेरी विवाद मूल रूप से गलत तरीके से ज्यादा पानी मांगने वाली फसल उगाने का और पुरातन कालीन तालाबों को सुखाये जाने और उन्हें नगरीकरण और ऊंची बिल्डिंग के हवाले करने का ही नतीजा है। जिसके कारण कभी बाढ़ तो कभी सूखे की समस्या आन पड़ती है। राहत पैकेज इसका उपाय नहीं हों सकता। भारत उदारीकरण के बाद भी सेवा और विनिर्माण के दम पर तेज़ से विकास प्राप्त कर रहा है। लेकिन इसका फायदा सभी को समान रूप से नहीं मिल पा रहा है। असमानता न बढ़े इसके लिए ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। सरकार को जोखिम न्यूनीकरण ,किसानों की लागत में कमी जैसे उपाय खोजने चाहिए। बीमा आदि करने पर किसान को सही जानकारी और बीमा कम्पनियों को मनमानी से रोकने के लिए नियामकीय प्रणाली को मजबूत करने पर ध्यान दिया जाय। सरकार को WTO में अपने पक्ष को मजबूत करने की भी जरुरत है। 2018 तक निर्यात सब्सिडी खत्म करने जैसे विषयों पर विकासशील देशों के समर्थन के साथ किसान हित में कदम उठाये, क्योंकि विकसित देशो में किसान की आय आज के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है। मंडी में बने हुए बिचोलिये प्रथा बंद करना होगा, क्योंकि समर्थन मूल्य के नाम पर यह किसानों को मजबूर करते है कम कीमत पर ये अनाज इन्हें बेचे और बाद में यह समर्थन मूल्य में अनाज बिका हुआ दिखा कर फायदा कमाते है। आधार कार्ड के माध्यम से सीधे पैसा उसके खाते में जमा हो ताकि बिचोलिये इसका फायदा न उठा पाये। कृषि उत्पाद का मूल्यवर्धन हो और उत्पाद को वैकल्पिक रूप से खपाने का तरीका भी हो इसके लिए प्रौद्योगिकी का इस्तमाल किया जाय जैसे प्लास्टिक थैले की जगह जूट आदि का थैला बनाया जाय। अवसंरचनात्मक विकास जैसे सिचांई आदि पर ध्यान दिया जाय। कम पानी वाली जगह जेनेटिकली मॉडिफाइड फसल का उपयोग करके कम पानी की फसल ली जाय । हमें अब नए-नए तरीकों को अपनाकर किसान में शिक्षा, जागरूकता आदि का प्रसार कर और वित्तीय संस्थाओं की उचित भागीदारी से ही कृषि विकास का रास्ता तलाशना होगा। आज कृषि देश को गरीबी से मुक्त करने का सबसे बड़ा माध्यम है।
*मयंक जोध, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। इस लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत है।