नए दौर के साथ किताबों का सदियों पुराना दौर खत्म : अतुल मलिकराम

समाजसेवी अतुल मलिकराम कहते है कि सभी जानते हैं कि आज की पीढ़ी के पास पहले की पीढ़ियों की तुलना में सबसे अधिक सुविधाएँ हैं। पहले के समय में डाकिया के हाथों भेजी हुईं चिट्ठियाँ और बदले में जवाब के इंतज़ार में कई-कई दिन और महीने लोग खुशी-खुशी काट दिया करते थे। सच कहें, तो इस इंतज़ार में भी सुकून था, जबकि उन्हें यह भी नहीं पता होता था कि उनकी चिट्ठी पहुँचेगी भी या नहीं। आज के दौर में उँगलियों से चंद मिनटों में खर्रे से भी बड़े-बड़े मैसेज, टाइप करके महज़ एक क्लिक पर पलक झपकते ही सामने वाले को मिल जाया करते हैं। 


यह आधुनिक दुनिया की सुविधा का एकमात्र उदाहरण है। ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनकी यदि मैं बात करने बैठूँ, तो अखबार के पन्ने खत्म हो जाएँगे, लेकिन उदाहरण नहीं। फिर भी एक उदाहरण मन में आ रहा है, जो आपके समक्ष कह देता हूँ। चिट्ठियों के समान ही आज के समय में हमारी सबसे अच्छी दोस्त कही जाने वाली किताबें भी किसी संदूक में पड़े-पड़े धूल खाने को बेबस हैं। 

एक क्लिक पर समस्या के समाधान खोजने की परंपरा जो दौड़ पड़ी है। अब कहाँ लोग सवालों का पुलिंदा लेकर किताबों के पास आते हैं.. अब कहाँ लोगों को सुकून की छाया किताबों में दिखती है.. 


पुराने समय में किताब का जो मोल था, उसे शब्दों में क्या ही बयाँ करूँ। न हाथ में मोबाइल थे और न ही सोशल मीडिया की दिखावे वाली दुनिया.. अपने जीवन का न सिर्फ खाली, बल्कि सबसे खास समय, मोबाइल के कीबोर्ड पर खिटपिट करने से परे, किताबें पढ़कर बीता करता था। सही मायने में यह पंक्ति यहाँ सटीक बैठती है: "वो दिन भी क्या दिन थे।"  

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